मत जलाओ आँखों की जुगनू को रात भर कि,
आँसू बनके भाप सांसों में घुल जायेगा.
गिर पड़े हैं तेरे क़दमों के निशाँ पर,
के लहू हमारी तेरे धूल से धुल जायेगा..
हम किताबों के पन्ने में कुछ लिखा करते थे,
फिर रात भर तकिये तले उसे दबा रखते थे..
अब ना लिखों कुछ अपने होठों पर,
कि दब के कलम तेरे होठों से मचल जायेगा,
जाने क्या हम छुप छुपे के देखा करते थे..
तब कि नादानी में भला क्या अकल आएगा,
अट्ठन्नी को निचे गिरा तेरे जुल्फों पे झुका करते थे.
अब शायद ही तुम चूरन कि पुडिया लाती होगी,
फिर दोस्तों से छुपा मेरे किताबों में छुपाती होगी..
अब तो आधी छुट्टी का इंतज़ार ना होता होगा,
कि जब हम अपने बस्तें खिड़की से फेंक भागा करते थे,
वो बेचारा टूटा पीपल भी रोता होगा,
जहाँ तेरी चूरन के बदले हम चुम्बन दिया करते थे..
देवेश झा