दो बजे...
दो बजे,
छत के रुखरे फर्श पे
लेटा मैं,
छनक के गिरा जो बूँद,
तुम्हारे तकिये पे,
सुना था मैं.
शायद झूठा ख्वाब हो,
सोचूं मैं इससे पहले,
दर्द हो पड़ा सीने मैं.
वाकई में ज़ख्म था..
दो बजे,
धूप के छिछलते,
भाप से याद आई,
तुम्हारे दाल की धीमीं नमक,
अब तो दो बूँद रो,
नमक की कमी,
दो बजे,
पूरी होती होगी,
कभी लपेट बादल के टुकरे को,
सुखाती सर्फ़ से धोये कपडे,
इसी छत पर,
जिसपे लेटा मैं
दो बजे,
रात में,
की महक आती थी,
वो गर्त में पड़ा,
कुछ पंखुरिया,
बरसात के बाद से ही,
मुझसे कहने को उग आई,
बनके दो बड़े पौधे,
अब जिसकी आहट आती है
दो बजे,
स्कूल के बसते से उनके.
निकालता मैं उनके माँ के
नाम एक चिट्ठी,
जिसे पोस्ट करना
हर दिन मैं भूल जाता,
क्यूंकि पता ही नहीं
उस डाकखाने का
जहां से खुदा ख़त उठाता,
और दो बजने से पहले मुझे मिल जाती,
दूसरी ख़त की,
क्यूँ उसने दो बजे,
एक सुनसान रस्ते पर दिया
कुचलने उसे जो दो पौधों की
माँ थी,
और एक पेड़ की नम पानी,
जो बहता रहता इसी तरह
हर दिन दो बजे
और हर रात दो बजे....
देवेश झा
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