बुझी दीपशिखा
शिखर पर जाना,
तुम !
चाँद की आभा,
छूना.
सतह से गहराई की सीमा,
नापना हो अगर तो,
मेरे आँखों में कण डाल,
देना.
लाबब भरा नैन समंदर,
तलछटी को छूए कण.
इससे पहले कण,
गल जाएगी.
शिखर से उतरो,
चाँद से पूछो,
दाग कहाँ है?
कला बन बैठा बूँद जो नैनों में,
कहीं वो तो नहीं.
शिखर पर जाना तुम,
चाँद की आभा छूना.
अवरक्त भरा मेघ,
क्षितिज पर इठलाये,
कह दो इससे सुन्दर, रक्तिम हैं मेरे नैन,
कल ही तो रक्त गिरा था,
आंसू के बदले.
अरण्य में दीपशिखा,
और धुल सनी जटा,
देखे हैं मेरे नैन.
सूर्य सना बर्फ में,
जलती चाँद कोठरी में,
कैद ये बिम्ब सारे,
नेत्र पटल पर.
शिखर पर क्या लहर है, मुझे बतलाओ.
गंध है वहाँ भी कफ़न के सूत का?
या, सिन्दूर चिपकी जो मांग में,
जला पर बना ना राख,
के कुछ अवशेष हैं?
नहीं.
फिर शिखर पर "तुम"
नहीं हो (मेरा अतीत),
या कोई मूर्तिमान है.
भूलकर,
जली प्रेमिका को,
और बुझी दीपशिखा को.
देवेश झा
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