Youthon
Tuesday, November 30, 2010
muskurahat ki aahat
मुस्कराहट की आहट लत बना दे,
दूर से ही जुल्फें तू उड़ा,
धड़कन की कम्पन मुझे बना ले.
आस पास की सर्द हवा,
ठहर तू इधर उसकी लट बना दे..
कानों में उसके जाकर तू कहना,
उसे है तेरे संग रहना..
अब तो ज़ुल्फ़ की लट संवारेगी,
अपने लाल चादर में आ,
मुझे धुंध में पुकारेगी...
ऊँगली अपनी मेरे लबों पे रखेगी,
फिर जाने से पहले रो देगी,
कुछ तो बहाना होगा,
लाल चादर को जलाना होगा,
जब ठण्ड से कांपेगी,
तभी तो मेरे सीने से चिपक खुदको धाँपेगी,
कसकर उसके बाजुओं में,
मैं भी आना चाहूँगा,
लेकिन मेरा तो शरीर नहीं,
बस बन हवा उसके बाजुओं से गुज़र जाऊँगा..
देवेश झा
Monday, November 29, 2010
जहाँ मुझे मेरी मरी प्रेमिका मिली,
मैंने पूछा गयी थी क्या करने कार के नीचे,
जो तुझे बेदर्दी से किसी ने कुचली..
वो रूठ कर भागने लगी, मैंने कलाई पकड़ा,
तब उसने सच्चाई बताई थोडा थोडा..
उसने कहा, एक दिन मैं कही थी
तुझे बुलाने पर पर "आई देवेश",
यमराज घूम रहा था बदलकर भेष,
उसने आज इंग्लिश समझा,
"आई देवेश" का मतलब "मैं देवेश" समझा..
उसने तेरी मौत के बदले मेरी जान ले बैठा,
अपनी गलती पर वो पछताया,
मेरी जान लौटा, तेरी जान लेने की बात बताया..
मैंने झूठ बोला मैं देवेश ही हूँ,
कम से कम तेरे मौत को तो मैं जी रही हूँ..
हाँ ये बात किसीको मत बताना,
क्यूँकि तेरे आँखों में रहता है मेरा आना जाना.
देवेश झा
Gangajal jaisi...
लबों की शादी...
मेरे आँखों में अपने आँसू गिरा दे,
बारिश की बूंदे जैसे गंगाजल छूती.
थकी पलकें मेरे पलकों पे लिटा दे,
उजली चाँद जैसे नीली आसमां में सोती..
ज़रा ज़रा मुस्कुरा की गगन हाथों में आ जाए,
बाँध मुट्ठी फिर सितारों से तेरी मांग भरा जाए..
घर का ठिकाना मैं ओस से पूछ तो लूं,
उसने कहा तूने नहीं आज गुल चूमा है..
ठहरा ले उसे होठों पर, के मुझे उससे डर है,
बन जाए ना ओस आँसू जो गिरता इधर उधर है..
काश के मैं तेरा होठ बन जाऊं,
फिर फूलों से ओस चुन लाऊं,
कभी तो तुम अपने लब को लबों से मिलाओगी,
अपने ऊपर के लब को पिया बना,
खुद भी नीचे की लब बन जाओगी..
दबी साँसों की बारात होगी,
एक लब दूल्हा मैं एक लब दुल्हन तू,
दो लबों के लिए तो हर शब्द मिलन की रात होगी..
अब दो लबों में बिना कुछ कहे भी बहुत बात होगी..
देवेश झा
Sunday, November 28, 2010
सुबकता आसमां प्यासी धरती थी,
एक चाँद मुझपे भी मरती थी..
यूँही रात गुज़र जाती,
पर जाने से वो डरती थी?
मैंने पूछा क्या हुआ?
पता चला, वो किसी और का इंतज़ार करती थी..
हाथों फूल लिए बैठी रहती थी,
चुप चुप कभी कभी रोती थी...
उस दिन फलक से बारिश होती थी,
मैंने बूंदों को छुआ,
पता चला, मेरी ही आँसू उसके आँखों से गिरती थी..
हवाओं ने रुख बदली,
फिजाओं ने रुत बदली..
पर वो तो वैसे ही बैठी थी..
मैंने जाके देखा,
पिछले ही सावन, वो इंतज़ार करते करते मर चुकी थी...
लाश पे उसकी एक चुनरी थी,
दुनिया उसे सतरंगी कहती थी..
कोई जाकर ना हटाये उस चुनरी को,
वो तो कफ़न बनी मेघ है,
क्यूँकि सात रंग मिल ही तो सफ़ेद है!!!!
देवेश झा
Galat
पर गलती मेरी कहाँ ?
शर्म से सर ना झुकाऊं,
पर मैं बेशर्म कहाँ ?
हर दिन एक डोर काटूँ,
पर इसका अंत कहाँ ?
पैसे लेती तुझे खुश कर,
पर मैं खुश होती कहाँ ?
सजा भी भुगत लूं,
पर मेरी अपराध कहाँ ?
पूजा तेरी कुछ पल करूँ,
पर तू मेरा भगवान् कहाँ ?
रो भी ना सकूँ,
इन आँखों में आँसू कहाँ ?
पेट का सवाल है बाबू,
नोच निर्वस्त्र खड़ी मैं, जहाँ तहाँ..?
देवेश झा
Mere Kuchh Lafzz!!!
मेरे कुछ लफ्ज़ फंसे है तेरे होठों में,
चुपके से इन्हें मेरे लबों पर रख दो...
आंसू बन जाये ना बर्फ पलकों में,
चुप रे पागल हवा क्यूँ सर्दी करता है,
तुम कुछ बोलकर ज़रा चुप हो जाओ..
ये और रात का भींगा ओस बस मनमर्जी करता है,
छूकर इन्हें तुम मुझसे लिपट फिर छुप जाओ..
बुझता हुआ चाँद क्या शर्माएगा,
ढीठ बड़ा रात अपने संग बिताएगा..
तुम हंसकर इसे इशारा कर दो,
कमबख्त! धरती पर गिर जायेगा..
देवेश झा
Saturday, November 27, 2010
तपने दो आंसू मेरी,
तुम अपने आँखों की धूप में.
साँसों को जरा छूकर देखो,
ठंडे होठों के लुक-छुप में.
पलकों के किनारें जो काजल,
सुन सुन क्या कहती है,
बिना छनकती तेरी पायल,
ओह! कहने से डरती है..
चल छोड़ जुल्फों का कहना,
बिन हवा के उड़ उड़ कहती कुछ ना...
फिर थम के मेरा नाम तू लेना,
अब प्यार नहीं मुझसे ज़रा कहो,
मिट जाएगी लकीर तेरी, ऐसा मत करना..
देवेश झा
Friday, November 26, 2010
Any Aurora Od November (Mumbai Terror)
Note:-(This post is taken from my fiction Dwelling Dew, no any part is real.. its only and only imaginory)
From the My new Novel Dwelling Dew (Story of Scatty)
Wednesday, November 24, 2010
Willy-Nilly of Black Night
As every night I wake up today also. Immersed night was not slumbering or being a shelter of somnambulist, this was carrying out a rivulet of dew; free from anxiety, seemed to be as serenade was cherishing to pretty champion nymph, surety of sky was denoting ceased of his before the daybreak, cloud were making abode of moon, feeble twinkling of stars was coming strongly, unhampered as without any alternative. Wind cold; refreshing sensation was causing a chill in entire soft and small hair on the body, lots of messenger of angel walking here there and everywhere in the costume of fire-fly. There was continuing of blessing kissing missing and embarrassing of blue sky and dark earth, overwhelmed starry night spurted innate disposition. Mime between earth and sky was memorable, in this modulation of a humming occurred during comet absolve in mists. If a sight fallen inside of horizons then it was given a gift of glance as someone was locking his lover into his arm and ringlets were waving due to lovely lisping of her attitude, exactly according to this manner chuckling cloud was touching the earth at horizon.
From the my new novel Dwelling Dew (Story Of Scatty)
Devesh Jha
Thursday, November 18, 2010
एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा,
जैसे ट्रैफिक का टूटा रूल,
जैसे पिक्चर हो पैसा वसूल.
जैसे मैक्डोनाल का पिज्जा,
जैसे गजनी का गज्ज़ा,
जैसे फेसबुक का प्रोफाइल,
जैसे मोटोरोला का मोबाइल.
हो! जैसे कॉलेज में सहेली,
जैसे दिवाली में हो होली...
जैसे सू सू करता नवजात,
जैसे घर से भगाता बाप..
एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा...
जैसे बाइक में ख़त्म हो पेट्रोल,
जैसे सचिन हो जीरो पे बोल्ड..
जैसे मुंबई का ब्लास्ट,
जैसे बोर होता क्लास..
जैसे एकोन लिपस्टिक लगाये,
जैसे जोर्ज बुश गाना गाये...
हो जैसे बंद हुआ हो लिफ्ट..
जैसे सस्ता मिला हो गिफ्ट.
हो जैसे न चलता हो फटा नोट ..
Monday, November 15, 2010
Touch Imagination
अपने बेचैनियों की सुबह तलाशता हूँ,
कभी कभी इसकी वज़ह तलाशता हूँ.
आंसू हटाकर अपने मन से,
धड़कन में छुपी कम्पन तलाशता हूँ.
गाने को तो कोई धुन न मिलता,
होठों से यूँ ही चिपके हर्फ़ फेंका,
लोगों ने कहा ग़ज़ल बन गए.
मैं अभी धुंध में खोया ही था,
उन्होंने आके लिपटा दी बाँहें अपनी,
हर अश्क ओस के जल बन गए..
नाकामयाब इश्क की फतह तलाशता हूँ,
जन्हा हो हम वो एक साथ वो जगह तलाशता हूँ.
अपने यादों के हर कफ़न से,
मौत जो ना मिलती मुझे बेवज़ह तलाशता हूँ...
झूठी जिंदगानी की हर बिसात मैंने ही बिछायी थी,
सूखे बादलों में पहली बरसात मैंने ही लायी थी.
चलकर हम करीब जा सकते थे,
पर पैरों में जंजीर एक रात मैंने ही बनायीं थी...
देवेश झा
Friday, November 12, 2010
The little bit touch....
तुम मुझे यूँ सपनो में क्यूँ दिखती हो,
जब भी रात ठहर कर रोता है,
तुम मेरे पलकों को क्यूँ छूती हो?
सजा कहूँगा तो वफ़ा क्या करूँगा,
बहने दो होठों से लहू मेरी,
एक नमकीन सी खुश्बू तो होगी,
सांसो की जो होंगी आंसू से बेहतर,
रात का जलता दिया, जुल्फों से कहती है,
अब प्यार के दो चार कदम पर,
हम होंगे तुम होगी लेकिन पास तो कुछ भी न होगा....
तुम मुझे बिन हर्फो की कैसे पढ़ती हो,
जैसे बिना नींद का कोई सोता हो,
जैसे होठ तो बांध जाते पर आवाज़ टूटी हो.
इसे कसक कहूं तो अदा क्या कहूँगा,
नजरो में उड़ने दो अक्स हूबहू मेरी,
दूर से ही तो थोड़ी गुफ्तगू होगी.
कभी कभी मिलती थी जो गिरकर,
अब चोट ज़ख़्म से कहती है,
उनके हाथों की मरहम पर,
आह तो होगी लेकिन अहसास न होगा.
देवेश झा